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कविता

बीज

महेश वर्मा


जंगल की आँख हैं बीज जिससे
देखते हैं जंगल धरती के भीतर का जीवन।
कितने पत्थर, कितना जल
कितना लावा, कितना प्यार सीने में रखकर
रचती है पुरातन धरती एक वृक्ष का स्वप्न।
एक चिड़िया जिसे
जन्म लेना है बाद के किसी साल
उसके भी सपने में है इसी बीज की देह
जिस पर उसको रचना है अपना नीड़।
तब जो एक वृक्ष होगा या एक झाड़ी
उसी के अँधेरे की आस में जन्मेगा एक साँप।
चुपचाप कहीं को जाती चींटियाँ
अगली पीढ़ियों के कान में कह देंगी इस बीज का रहस्य।

इसी की छाल से रगड़ी जाएगी कोई बनैली देह।
बीज को हथेली पर रखकर
केवल वर्षा के बारे में सोचना चाहिए।


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